Tuesday, 17 May 2022

यूपी का अपराध, सिनेमा और वेब सीरीज़ में क्यों दिखाया जा रहा है?


पिछले कुछ सालों में स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने फ़िल्म निर्माताओं को कहानियों का दायरा बढ़ाने के मौके दिए हैं. आबादी के लिहाज़ से भारत का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश फ़िल्म निर्माताओं के लिए आकर्षक ठिकाना बन गया है. लेकिन यहां आधारित कहानियों में आमतौर पर अपराध और गैंग हिंसा को ही दिखाया जाता है. और इसके बीच राज्य की समृद्ध संस्कृति और इतिहास पीछे छूट जाता है.

उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों और क़स्बों पर आधारित कम बजट की फ़िल्मों की कामयाबी ने फ़िल्म और टीवी उद्योग को यहां और अधिक कहानियां बनाने के लिए आकर्षित किया है.

अपने बड़े आकार और आबादी की वजह से भारत की राजनीति पर हावी रहा उत्तर प्रदेश अब फ़िल्म निर्माताओं की पहली पसंद बनता जा रहा है.

नई फ़िल्मों और वेब सीरीज़ पर नज़र रखने वाले ट्विटर अकाउंट सीनेमा रेयर ने मज़ाकिया लहजे में कहा कि अब शायद ही उत्तर प्रदेश का कोई शहर या क़स्बा बचा हो जिस पर फ़िल्म ना बन गई हो.

राज्य सरकार भी छूट और विशेष व्यवस्था का प्रलोभन देकर फ़िल्म निर्माताओं को अधिक से अधिक संख्या में आकर्षित कर रही है.

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मिर्ज़ापुर से लेकर पाताल लोक तक (और कई कम लोकप्रिय) लोकप्रिय शो राज्य पर ही आधारित हैं. इनमें पारिवारिक दुश्मनी और हिंसक हत्याओं को दिखाया गया है.

बॉलीवुड के लिए अपराध की कहानियां कोई बात नई नहीं है. 1998 में मुंबई पर आधारित गैंगस्टर ड्रामा फ़िल्म 'सत्या' के बाद ऐसी 'हिंसक और डार्क' फ़िल्मों का सिलसिला शुरू हुआ जो शहर की सतह के नीचे चल रहे अपराध लोक की यात्रा कराती हैं.

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हालांकि सत्या के बाद से मुंबई अंडरवर्ल्ड की आम जन-मानस पर छाप कमज़ोर हुई है लेकिन नए दौर की अपराध आधारित फ़िल्मों पर इसका असर अब भी दिखाई देता है.

फ़िल्म आलोचक उदय भाटिया ने अपनी किताब 'बुलेट्स ऑवर बॉम्बे' में लिखा है, "सत्या हिंदी सिनेमा में बड़ा बदलाव लेकर आई, लेकिन इसकी विरासत में वो लोग भी शामिल हैं जिन्होंने इस पर काम किया, उन्होंने इसकी कामयाबी से फ़ायदा उठाया और अपने तरीक़े से हिंदी सिनेमा को बदला."

इनमें निर्देशक अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज भी शामिल हैं, जो दोनों ही उत्तर प्रदेश से आते हैं. विशाल भारद्वाज ने उत्तर प्रदेश पर आधारित कई हिट फ़िल्में बनाई हैं.

दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली लेखिका और फ़िल्म निर्माता अनुभा यादव कहती हैं कि सत्या से पहले तक हिंदी फ़िल्में कहानी पर बहुत अधिक फोकस नहीं होती थीं.

वो कहती हैं, "मुझे लगता है कि हिंदी सिनेमा के लिए प्लॉट महत्वपूर्ण हो गया और इसके बाद फ़िल्मों में एक अलग तरह की सौंदर्यता दिखने लगी. मुझे लगता है कि वेब सीरीज़ अब इसे एक नए स्तर तक ले जा रही हैं."

लेकिन कुछ आलोचक एक समस्या की तरफ़ भी ध्यान दिलाते हैं.

उत्तर प्रदेश के शाहबाद में रहने वाले समाजशास्त्री मोहम्मद सईद कहते हैं, "सत्या असली थी. उसके बाद आई सभी फ़िल्में एक ही चीज़ की कॉपी सी लगती हैं लेकिन उनमें बस नए मुहावरे होते हैं, नई कहावतें होती हैं और नई गालियां होती हैं."

वहीं यादव कहती हैं, सत्या की कामयाबी के बाद जो नई शैली बनी वो दर्शकों को गुदगुदाने के लिए एक ख़ास क़िस्म के मर्दवाद और हिंसा का सहारा लेती है.

उत्तर प्रदेश अपने भौगोलिक स्थिति और आबादी की विविधता की वजह से फ़िल्म निर्माताओं को लाभ देता है. लेकिन इसके अलावा भी राज्य के पास बहुत कुछ है. राज्य को उसकी गंगा-जमुनी तहज़ीब (हिंदु मुसलमानों की साझा संस्कृति) का श्रेय तो दिया ही जाता है. इसके अलावा यहां साहित�

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